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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


सेवासदन मुंशी प्रेमचंद (भाग-4)

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सदन को ऐसी ग्लानि हो रही थी, मानों उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दय हूं। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था।

वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे क्या दे देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूं, जो मालूम नहीं मेरे पूर्व जन्म की कितनी ही तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बंधुगण मुझे छोड़ दें तो क्या हानि है? लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो, तो उससे डरना कायरता है। यदि हम किसी निरपराध पर झूठा अभियोग लगाएं, तो संसार हमको बदनाम नहीं करता, वह इस अकर्म में हमारी सहायता करता है, हमको गवाह और वकील देता है। हम किसी का धन दबा बैठें, किसी की जायदाद हड़प लें, तो संसार हमको कोई दंड नहीं देता, देता भी है तो बहुत कम, लेकिन ऐसे कुकर्मों के लिए हमें बदनाम करता है, हमारे माथे पर सदा के लिए कलंक का टीका लगा देता है। नहीं, लोक-निंदा का भय मुझसे यह अधर्म नहीं करा सकता, मैं उसे मंझधार में न डूबने दूंगा। संसार जो चाहे कहे, मुझसे यह अन्याय न होगा।

मैं मानता हूं कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। उन्होंने मुझे जन्म दिया है, मुझे पाला है। बाप की गोद में खेला हूं, मां का स्तन पीकर पला हूं। मैं उनके इशारे पर विष का प्याला पी सकता हूं, तलवार की धार पर चल सकता हूं, आग में कूद सकता हूं, किंतु उनके दुराग्रह पर भी मैं उस रमणी का तिरस्कार नहीं कर सकता, जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। मां-बाप मुझसे अवश्य विमुख हो जाएंगे। संभव है, मुझे त्याग दें, मुझे मारा हुआ समझ लें, लेकिन कुछ दिनों के दुख के बाद उन्हें धैर्य हो जाएगा। वह मुझे भूल जाएंगे। काल उनके घाव को भर देगा।

हाय! मैं कैसा कठोर, कैसा पाषाण-हृदय हूं! वह रमणी जो किसी रनिवास को शोभा बन सकती है, मेरे सम्मुख एक दीन प्रार्थी के समान खड़ी रहे और मैं जरा भी न पसीजूं? वह ऐसा अवसर था कि मैं उसके चरणों पर सिर झुका देता और कर जोड़कर कहता, देवि! मेरे अपराध क्षमा करो! गंगा से जल लाता और उसके पैरों पर चढ़ाता, जैसे कोई उपासक अपनी इष्ट देवी को चढ़ाता है। पर मैं पत्थर की मूर्ति के सदृश खड़ा अपनी कुल-मर्यादा का बेसुरा राग अलापता रहा। हा मंदबुद्धि! मेरी बातों से उसका कोमल हृदय कितना दुःखी हुआ होगा। यह उसके मान करने से ही प्रकट होता है। उसने मुझे शुष्क, प्रेमविहीन, घमंडी और धूर्त्त समझा होगा, मेरी ओर आंख उठाकर देखा तक नहीं। वास्तव में मैं इसी योग्य हूं।

वह पश्चात्तापात्मक विचार कई दिन तक सदन के मर्मस्थल में दौड़ते रहे। अंत में उसने निश्चय किया कि मुझे अपना झोंपड़ा अलग बनाना चाहिए, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। इसके बिना निर्वाह नहीं हो सकता। मां-बाप के घर का द्वार अब मेरे लिए बंद है, खटखटाने से भी न खुलेगा। चचा मुझे आश्रय देंगे, लेकिन उनके यहां रहकर घर में बैर का बीज बोना अच्छा नहीं; माता-पिता समझेंगे कि यह मेरे लड़के को बिगाड़ रहे हैं। बस, मेरे लिए इसके सिवाय कोई और उपाय नहीं कि अपने लिए कोई राह निकालूं।

वह विचार करता कि चलकर अपनी लगाई हुई आग को बुझा आऊं, लेकिन चलने के समय उसकी हिम्मत जवाब दे देती। मन में प्रश्न उठता कि किस बिरते पर? घर कहां है?

सदन नित्य इसी चिंता में डूबा रहता कि इस सूत्र को कैसे सुलझाऊं? उसने सारे शहर की खाक छान डाली, कभी दफ्तरों की ओर जाता, कभी बड़े-बड़े कारखानों का चक्कर लगाता और दो-चार घंटे घूम-घामकर लौट आता। उसका जीवन अब तक सुख भोग में बीता था, उसने नम्रता और विनय का पाठ न पढ़ा था, अभिमान उसके रोम-रोम में भरा हुआ था। रास्ते चलता तो अकड़ता हुआ, अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता था। उसे संसार का कुछ अनुभव न था। वह नहीं जानता था कि इस दरबार में बहुत सिर झुकाने की आवश्यकता है। यहां उसी की प्रार्थना स्वीकृत होती है, जो पत्थर के निर्दय चौखटों पर माथा रगड़ना जानता है, जो उद्योगी है, निपुण है, नम्र है, जिसने किसी योगी के सदृश अपने मन को जीत लिया है, जो अन्याय के सामने झुक जाता है, अपमान को दूध के समान पी जाता है और जिसने आत्मभिमान को पैरों तले कुचल डाला है। वह न जानता था कि वही सद्गुण, जो मनुष्य को देवतुल्य बना देते हैं, इस क्षेत्र में निरादर की दृष्टि से देखे जाते है। वह ईमानदार था, सत्यवक्ता था, सरल था, जो कहता मुंह पर, लगी-लिपटी रखना न जानता था, पर वह नहीं जानता था कि इन गुणों का आत्मिक महत्त्व चाहे जो कुछ हो, संसार की दृष्टि में विद्या की कमी उनसे नहीं पूरी होती। सदन को अब बहुत पछतावा होता था कि मैंने अपना समय व्यर्थ खोया। कोई ऐसा काम न सीखा, जिससे संसार में निर्वाह होता। सदन को इस प्रकार भटकते हुए एक मास से अधिक हो गया और कोई काम हाथ न लगा।

इस निराशा ने धीरे-धीरे उसके हृदय में असंतोष का भाव जाग्रत कर दिया। उसे अपने माता-पिता पर, अपने चाचा पर, संसार पर और अपने आप पर क्रोध आता। अभी थोड़े ही दिन पहले वह स्वयं फिटन पर सैर करने निकलता था, लेकिन अब किसी फिटन को आते देखकर उसका रक्त खौलने लगता था। वह किसी फैशनेबुल मनुष्य को पैदल चलते पाता, तो अदबदाकर उससे कंधा मिलाकर चलता और मन में सोचता कि यह जरा भी नाक-भौं सिकोड़े तो इसकी खबर लूं। बहुधा वह कोचवानों के चिल्लाने की परवाह न करता। सबको छेड़कर लड़ना चाहता था। ये लोग गाड़ियों पर सैर करते हैं, कोट-पतलून डाटकर बन-ठनकर हवा खाने जाते हैं और मेरा कहीं ठिकाना नहीं।

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